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जीएसटी कानून बड़े स्तर पर बदलाव लाया है, लेकिन न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) का गठन डिजिटल जीएसटीएटी की तर्ज पर ही किया जाना चाहिए

जीएसटीएटी को जीएसटी अधिकारियों के नियंत्रण के बाहर रखा जाएगा। इसके ज़रिए करदाताओं के अधिकारों और सरकार के राजस्व हितों की रक्षा की जा सकती है।

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने नरेंद्र मोदी सरकार और जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) परिषद को बिना किसी देरी के जीएसटी अपीलीय न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल), या जीएसटीएटी  का गठन करने का आदेश दिया था। जीएसटी कानून को पारित किए हुए चार साल बीत चुके हैं लेकिन जीएसटीएटी का गठन किया जाना अब भी बाकी है। इसकी अनुपस्थिति में करदाताओं को उच्च न्यायालयों में रिट याचिकाओं का सहारा लेना पड़ा है, जिसने कर अनुपालन प्रणाली में अनिश्चितता को जन्म दिया है।  

केंद्र और राज्यों के बीच की कश्मकश   

हालांकि जीएसटी कानून को लागू किए जाने के तुरंत बाद ही जीएसटीएटी को अधिसूचित कर दिया गया था, लेकिन इसके बाद सितंबर 2019 में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा आगे की कार्रवाई पर रोक लगाए जाने के बाद, इसके गठन की प्रक्रिया वहीं थम गई। इस मामले में केंद्रीय मुद्दा जीएसटीएटी पीठ की सदस्यता का था। प्रस्तावित रूप से, जीएसटीएटी की हर पीठ में तीन सदस्य नियुक्त किए जाने थे – केंद्र और राज्य सरकारों के दो प्रतिनिधि, और कानून या न्यायिक सेवा में अनुभव वाले एक सदस्य।

इस विषय पर अब तक विकसित हुई न्यायिक समझ के अनुसार, उन मामलों में जहाँ न्यायिक क्षेत्राधिकार न्यायाधिकरणों को सौंपा जाता है, वहाँ न्यायाधिकरण पीठ की सदस्यता इस तरह होनी चाहिए ताकि राज्य की कार्यपालक शाखा के प्रतिनिधियों की संख्या, न्यायिक सेवा के प्रतिनिधियों से ज़्यादा न हो। इसका उद्देश्य, विवाद निवारण प्रणाली की निष्पक्षता सुनिश्चित करना है क्योंकि इस तरह के न्यायाधिकरणों के सामने आने वाले मामले अक्सर सरकारी विभागों के खिलाफ दायर किए गए होते हैं। पिछले दो वर्षों में केंद्र और राज्य सरकारें इस कश्मकश को दूर करने में विफल रही हैं। वकीलों को न्यायिक सदस्यों के दायरे से बाहर रखा जा सकता है या नहीं, यह मुद्दा भी इस न्यायिक मामले के तहत विचाराधीन है।       

सुनहरा अवसर 

इस कश्मकश में केंद्र और राज्य सरकारें जिस भी समाधान पर पहुंचे, जीएसटीएटी के गठन को डिजिटल रूप से स्वदेशी, अगली पीढ़ी की दूरगामी विवाद निवारण प्रणाली खड़ी करने के एक सुनहरे अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसके ज़रिए देश के अन्य न्यायाधिकरणों और न्यायालयों के लिए नए मापदंड स्थापित किए जा सकते हैं। 

नए जीएसटीएटी को जीएसटीएन द्वारा डाली गई बुनियाद से शुरू किया जाना चाहिए, जो अब बड़ी पैमाने पर डेटा संभालने वाला, एक लाइव और स्थिर प्लेटफॉर्म बन चूका है। ताज़ा उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, जीएसटीएन पर 1.3 करोड़ पंजीकृत करदाताओं की गतिविधियों का निपटान किया जा रहा है, जिन्होंने अब तक कुल 74 करोड़ कर विवरण दाखिल किए हैं। जीएसटीएन में बैक-एंड और करदाता सेवाओं के लिए पहले से ही स्थापित कार्यप्रणाली (वर्कफ़्लो) मौजूद है। यह ज़रूरी है कि विवाद निवारण प्रणाली के रूप में जीएसटीएटी में भी ऑनलाइन जानकारी के इस डिजिटल प्रवाह को बिना तोड़े, जारी रखने का प्रावधान किया जाए।   

जीएसटीएटी नागरिकों और करदाताओं के लिए उपलब्ध कराई गई पहली ऐसी विवाद निवारण प्रणाली होगी जो जीएसटी प्राधिकरणों के नियंत्रण से बाहर है। करदाताओं के अधिकारों और केंद्र व राज्य सरकारों के कर-संबंधी हितों की रक्षा करने के लिए, अगली पीढ़ी के तकनीकी ढांचे पर टिका, एक मज़बूत और नियम-आधारित न्यायाधिकरण बनाया जाना एक अनिवार्य कदम है। जीएसटी अनुपालन और प्रशासन के लिए जिस स्तर पर तकनीकी ढांचे का इस्तेमाल किया जा रहा है, उसे देखते हुए न्यायाधिकरण की इस संरचना को लागू करने के लिए मौजूदा कार्य-प्रणालियों (वर्कफ़्लो) का विस्तार किया जाना काफी होगा।

जीएसटी द्वारा लाए गए आमूलचूल परिवर्तनों को और इसके अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए किए जा रहे भरपूर प्रयासों को देखते हुए, यह स्वाभाविक है कि आने वाले वर्षों में इसको लेकर मामलों-मुकदमों में तेज़ी आएगी। एक प्रभावी न्यायाधिकरण स्थापित करने का यही सही समय है, इससे पहले की मामले-मुकदमों की संख्या नियंत्रण से बाहर हो जाए। दूसरे न्यायाधिकरणों और न्यायालयों के अनुभवों से सबक सीखना भी ज़रूरी है, ताकि उनकी गलतियों को दोहराया न जाए। 

न्यायालयों, न्यायाधिकरणों के लिए एक आदर्श (मॉडल)

जीएसटीएटी को एक पूरी तरह से ऑनलाइन, डिजिटल रूप से स्वदेशी, अगली पीढ़ी की तकनीक पर आधारित न्यायाधिकरण के रूप में स्थापित किया जाना चाहिए, जिसे जीएसटीएन में मौजूद जानकारी और दस्तावेज़, ज़रूरी जांच-पड़ताल के बाद उपलब्ध कराए जा सकते हैं। अपील दायर करने वाले को, चाहे करदाता हो या सरकारी विभाग, उन्हें सिर्फ अपील मेमो (ज्ञापन) ही दाखिल करना होगा (जिसमें जीएसटीएन में मौजूद दस्तावेज़ों का सन्दर्भ दिया जाएगा) और फिर इन दस्तावेज़ों को खुद-ब-खुद जीएसटीएटी को हस्तांतरित कर दिया जाएगा। विरोधी पक्ष को इसके बाद सिर्फ  इस अपील के खिलाफ अपनी आपत्तियों को दर्ज करने की आवश्यकता होगी।

जीएसटीएन के लॉगिन को जीएसटीएटी के लिए भी इस्तेमाल किए जा सकता है, ताकि दाखिल किए जाने पर नोटिस और दस्तावेज़ तुरंत सभी पक्षों को हासिल हो सकें। इस तरह के कुछ छोटे और सरल कदम, मामलों में खर्च होने वाले समय को कम कर सकते हैं और पूरी प्रक्रिया में निश्चितता के स्तर को बढ़ा सकते हैं। डिजिटल जीएसटीएटी में मामलों के प्रबंधन की एक मजबूत, नियम-आधारित प्रणाली होगी, जिसमें न्यायाधीशों, करदाताओं और सरकारी विभागों के लिए डैशबोर्ड भी उपलब्ध कराए जाएंगे। इस तरह के प्लेटफॉर्म को फिर अन्य न्यायाधिकरणों द्वारा भी मॉडल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।   

डिजिटल जीएसटीएटी के ज़रिए करदाताओं के लिए, साक्ष्य और दस्तावेज़ पेश करने की परेशानी को पूरी तरह से ख़त्म नहीं तो कम-से-कम काफी हद तक घटाया जा सकता है। स्पष्ट और नियम-आधारित कार्रवाई पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने और संस्थान में विश्वास पैदा करने का काम करेगी। घटनाओं और मामलों के जीवन-चक्र में आने वाली ज़्यादा निश्चितता, मामलों से जुड़ी लागत और कठनाइयों को कम करेगी। कर प्रशासन के नज़रिए से, सरकारी विभाग के वकील सभी दस्तावेज़ों को बिना किसी अड़चन के हासिल कर पाएंगे और बिना किसी देरी के, न्यायाधिकरण के सामने अपना पक्ष रख पाएंगे। कर प्रशासक भी न्यायाधिकरण के सामने आने वाले मामलों की प्रकृति, संख्या और विषयों का आसानी से विश्लेषण कर पाएंगे, जो साक्ष्य-आधारित कर नीति और संबंधित प्रशासनिक कदमों के निर्धारण में मदद करेगा। इस तरह का जीएसटीएटी, बेहतर कर अनुपालन और विवेकपूर्ण कर प्रशासन को बढ़ावा देगा, और इसके दीर्घकालिक सामाजिक-आर्थिक लाभ होंगे। 

इस परिकल्पना को साकार करने के लिए प्रोद्योगोकि ही नहीं, प्रतिभा भी ज़रूरी होगी      

इस तरह के संस्थान को खड़ा करने के लिए सिर्फ प्रौद्योगिकी ही काफी नहीं होगी। यह भी ज़रूरी है कि इस संस्थान को खड़ा करने की ज़िम्मेदारी निभाने वाले व्यक्ति इस परिकल्पना से सहमत हों और बदलाव और परिवर्तन के लिए तैयार हों। क्योंकि इन ज़िम्मेदारियों के लिए काफी हद तक मौजूदा न्यायालयों और न्यायाधिकरण में कार्यरत अधिकारीयों को ही चुना जाएगा, इसलिए ऊंची प्रतिभा वाले व्यक्तियों का चुनाव करना और भी ज़रूरी हो जाता है। इस नई परिकल्पना को साकार करने के लिए, पुराने ढर्रे वाली, विफल हो चुकी युक्तियों को इस्तेमाल करने के आरामदायक विकल्प को चुनने के बजाय, प्रक्रियाओं की नए सिरे से पुनर्कल्पना करना भी ज़रूरी होगा। सबसे महत्वपूर्ण है कि परिवर्तन की इस प्रक्रिया के दौरान समावेशी रवैया अपनाते हुए, सभी हितधारकों को इस परिकल्पना में साझेदार बनाया जाए।

यह, किसी बने बनाए संसथान में सुधार लाने के बजाय, बुनियाद से शुरू करते हुए, एकदम नए संस्थान को खड़ा करने का अनूठा अवसर है। इस अवसर का सही उपयोग करने की बड़ी ज़िम्मेदारी अब जीएसटी परिषद के कंधों पर है। इस ज़िम्मेदारी से भागने के बजाय, हमें एक दूरदर्शी संस्थान की नीव रखनी चाहिए। 

हरीश नरसप्पा संवाद पार्टनर्स में कार्यरत हैं और दक्ष के सह-संस्थापक हैं। 

सूर्य प्रकाश बी.एस. दक्ष में कार्यक्रम निदेशक के पद पर कार्यरत हैं, जो शासन और जवाबदेही पर काम करने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था है।  

यहां व्यक्त किए गए विचार, लेखकों के अपने निजी विचार हैं और वे दक्ष के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।

Translated from ‘Linking of Land Records and E-courts’ https://www.dakshindia.org/gst-law-brought-a-drastic-change/ by Harish Narasappa and Surya Prakash B.S

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